होलिका दहन के नियम-
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक होलाष्टक माना जाता है, जिसमें शुभ कार्य वर्जित रहते हैं। पूर्णिमा के दिन होलिका-दहन किया जाता है। इसके लिए मुख्यतः दो नियम ध्यान में रखने चाहिए –
धार्मिक महत्व-
हिन्दू त्यौहारों में होली का त्यौहार प्रमुख रूप से मनाया जाता है। होली बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक भी है। इसका धार्मिक और प्राकृतिक दोनों रूपों में विशेष महत्व माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन श्री हरि भक्त प्रह्लाद को राक्षसी होलिका मारने के उद्देश्य से आग में बैठी थी, होलिका को वरदान स्वरूप आग पर विजय प्राप्त थी, इसलिए आग से उसका बिल्कुल भी अहित नही होता था। लेकिन विष्णु जी परम प्रिय भक्त प्रह्लाद की हत्या के मकसद से जैसे ही होलिका आग में बैठी उसी वक्त वह जलकर भस्म हो गई जबकि भक्त प्रह्लाद का बाल भी बाँका नही हुआ। इस घटना के दूसरे दिन सभी तरफ लोगों ने रंग और गुलाल से भारी उत्सव मनाया। तब से लेकर आज तक इस दिन को रंगों के पर्व होली और दूसरे दिन धुरेन्डी के नाम से जाना जाने लगा। होली का त्यौहार समाजिक भाईचारा और प्रेम भाव को बढ़ाता है, दुश्मनी खत्म होकर दोस्ती में बदलती है। रंग खेलने का एक उद्देश्य यह भी होता है कि आपके सभी के जीवन में खुशियों के रंग भरे रहें। आज ही के दिन इस उत्सव को बसन्तोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। होली का त्योहार दीपावली की ही तरह पांच दिनों तक मनाया जाता है, पँचमी तिथि के दिन रंगपंचमी का त्यौहार मनाकर होली उत्सव समाप्त होता है।
वैज्ञानिक महत्व-
होलिका दहन की लपटें बहुत लाभकारी होती है, माना जाता है कि होलिका की पूजा करने से साधक की हर चिंता दूर हो जाती है। होलिका दहन की अग्नि नकारात्मकता का नाश करती है, वहीं वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो इसकी लपटों से वातावरण में मौजूद बैक्टीरिया खत्म हो जाते हैं। होलिका पूजा और दहन में परिक्रमा करना बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। होलिका की अग्नि ऊर्जा को तापना लोग स्वास्थ्य वर्धक उपाय भी मानते है।