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कुम्भ संक्रांति

कुम्भ संक्रांति महत्व-

कुंभ संक्रांति सनातन हिंदू धर्म का एक बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है। जब सूर्य, मकर से कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुम्भ संक्रांति का पर्व मनाया जाता है। कुंभ संक्रांति पर दान करने का काफी महत्व होता है। कुंभ संक्रांति पर गोदान का सर्वाधिक महत्व होता है। जो भी व्यक्ति इस दिन प्रातः काल उठकर गंगा स्नान करता है और सूर्य की उपासना करके अर्घ्य देता है, उसे अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। 12 वर्षों में एक बार लगने वाला विश्वप्रसिद्ध कुम्भ मेला कुम्भ संक्रांति के दिन से ही शुरू होता है।

 

शुभ मुहूर्त-

कुम्भ संक्रांति – 13 फरवरी 2023, रविवार

तिथि आरम्भ – 13 फरवरी प्रातः 07:01 बजे

शुभ मुहूर्त – 13 फरवरी प्रातः 07:01 से दोपहर 12:35 तक

 

पूजा विधि-

कुम्भ संक्रांति के दिन सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर, गंगा नदी में स्नान करना चाहिए। अगर सम्भव न हो तो शुद्ध ताज़े जल में गंगाजल मिलाकर स्नान करें। इसके बाद भगवान विष्णु जी की विधि पूर्वक व्रत संकल्प लेकर पूजा और उपासना करनी चाहिए। इसके बाद व्रत कथा का श्रवण करना चाहिए। सात्विक भोजन और फलाहार ग्रहण करना चाहिए और भजन संकीर्तन के साथ इस व्रत पर विराम लगाना चाहिए। इस दिन पितृ जनों का श्राद्ध कर्म करने का भी बहुत महत्व माना जाता है।

 

कुम्भ संक्रांति व्रत कथा-

प्राचीन काल में कांतिका नगर में धनेश्वर नाम का ब्राह्मण निवास करता था। वह अपना जीवन निर्वाह दान पर करता था। ब्राह्मण और उसकी पत्नी के कोई संतान नहीं थी। एक दिन उसकी पत्नी नगर में भिक्षा माँगने गई, लेकिन सभी ने उसे बाँझ कहकर भिक्षा देने से इंकार कर दिया। तब किसी ने उससे 16 दिन तक माँ काली की पूजा करने को कहा, उसके कहे अनुसार ब्राह्मण दम्पति ने ऐसा ही किया। उसकी आराधना से प्रसन्न होकर 16 दिन बाद माँ काली प्रकट हुई। माँ काली ने ब्राह्मण की पत्नी को गर्भवती होने का वरदान दिया और कहा, कि अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रत्येक पूर्णिमा को तुम दीपक जलाओ। इस तरह हर पूर्णिमा के दिन तब तक दीपक बढ़ाती जाना, जब तक कम से कम 32 दीपक न हो जाये।

ब्राह्मण ने अपनी पत्नी को पूजा के लिए पेड़ से आम का कच्चा फल तोड़कर दिया। उसकी पत्नी ने पूजा की और फलस्वरूप वह गर्भवती हो गई। प्रत्येक पूर्णिमा को वह माँ काली के कहे अनुसार दीपक जलाती रही। माँ काली कृपा से उनके घर एक पुत्र ने जन्म लिया, जिसका नाम देवदास रखा। देवदास जब बड़ा हुआ तो उसे अपने मामा के साथ पढ़ने के लिए काशी भेजा गया। काशी में ही किसी कारण वश देवदास का विवाह एक सुन्दर कन्या के साथ हो गया।

देवदास ने उस कन्या के पिता से कहा कि वह अल्पायु है, परन्तु फिर भी उसके पिता ने जबरन उसका विवाह करवा दिया। कुछ समय बाद काल उसके प्राण लेने आया, लेकिन कन्या ने पहले ही पूर्णिमा का व्रत रखा था इसलिए काल भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाया। फिर वह अपनी पत्नी के साथ अपने माता-पिता के घर ख़ुशी-खुशी लौट जाता है। पूर्णिमा के दिन व्रत करने से संकट से मुक्ति मिलती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।